अभ्यासक्रम:


गुरुकुल में अध्ययन केवल शाब्दिक न होकर प्रयोगात्मक भी है| बालिकाओं में तपस्यापूर्ण जीवन का अभ्यास कराया जाता है। अन्य शिक्षा-पद्धतियों में अध्ययन पर अधिक बल दिया जाता है| परन्तु गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली में अध्ययन को केवल साधन मानकर चरित्र निर्माण को प्रमुखता दी जाती है। निःसन्देह यह प्रमुख विशेषता है।

 आश्रम का जीवन विद्यार्थियों को अस्वस्थकारी प्रभावों से बचाता है। व्रताभ्यास द्वारा उनका शतक प्रशिक्षण भी होता है। कठोर परिवीक्षण तथा निश्चित दैनिक कार्यक्रम द्वारा विद्यार्थियों में समय का सदुपयोग करने की प्रवृति विकसित की जाती है।

कक्षा उत्तीर्ण करने के लिए केवल परीक्षा भवन में सम्पन्न हुई परीक्षा में उत्तीर्ण होना आवश्यक नहीं, दैनिक जीवन के कार्यक्रमों को नियमित रूप से करना भी आवश्यक है।

गुरुकुल शिक्षा पद्धति की प्रमुख विशेषताएँ हैं- विद्यार्थियों का गुरुओं के संपर्क में, उनके कुल या परिवार का अंग बनकर रहना, ब्रह्मचर्यपूर्वक सरल एवं तपस्यामय जीवन बिताना, चरित्र निर्माण और शारीरिक विकास पर बौद्धिक एवं मानसिक विकास की भाँति पूरा ध्यान देना आदिविशेष हैं|

जो विद्या पढ़ें और पढ़ावें वे निम्नलिखित दोषयुक्त हों—

आलस्यं मदमोहौ च चापल्यं गोष्ठिरेव च।
स्तब्धता चाभिमानित्वं तथाऽत्यागित्वमेव च।
एते वै सप्त दोषाः स्युः सदा विद्यार्थिनां मताः।।१।।
सुखार्थिनः कुतो विद्या नास्तिविद्यार्थिनः सुखम्।
सुखार्थी वा त्यजेद्विद्यां विद्यार्थी वा त्यजेत्सुखम्।।२।।    -विदुरनीति ८/५-६।।

आलस्य, नशा करना—मूढ़ता, चपलता, व्यर्थ इधर-उधर की अण्डबण्ड बातें करना, जड़ता—कभी पढ़ना कभी न पढ़ना, अभिमान और लोभलालच ये सात (७) विद्यार्थियों के लिये विद्या के विरोधी दोष हैं। क्योंकि जिसको सुख-चैन करने की इच्छा है, उसको विद्या कहां, और जिसका चित्त विद्या ग्रहण करने-कराने में लगा है उसको विषयसम्बन्धी सुख-चैन कहां? इसलिये विषयसुखार्थी विद्या को छोड़े, और विद्यार्थी विषयसुख से अवश्य अलग रहें। नहीं तो परमधर्म्म रूप विद्या का पढ़ना-पढ़ाना कभी नहीं हो सकेगा॥ ३-४॥

स्रोत – व्यवहारभानु
लेखक – महर्षि दयानन्द स्वामी।