गुरुकुलीय विशिष्ट पाठ्यग्रन्थ


पाठ्यक्रम में मुख्र्यरूप से पाणिनीय अष्टाध्यायी के क्रम से महाभाष्य पर्यन्त सम्पूर्ण संस्कृत व्याकरण, निरुक्त, छन्दःशास्त्र तथा सांख्य – योग – वैशेषिक – न्याय – मीमांसा – वेदान्त इन छह आर्ष दर्शनों व ११ उपनिषदों के गम्भीर अध्यापन के साथ साथ वेद, महर्षि स्वामी दयानन्द के ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, सत्यार्थ प्रकाश, संस्कारविधि आदि ग्रन्थ तथा अन्य वैदिक साहित्यों का स्वाध्याय होता है । इसके अतिरिक्त छात्राओं को योगदर्शन में वर्णित क्रियात्मक योग प्रशिक्षण भी सिखाया जाता है। आर्ष-पाठ्यक्रम का गंभीरता से अध्ययन करने वाली प्रत्येक छात्रा अपनी सर्वाङ्गीण आध्यात्मिक उन्नति करने में समर्थ होगी । अन्य दयानंद स्वीकृत प्राचीन ग्रंथ जिनका अध्यापन होता है वो हैं- मनुस्मृति, बाल्मीकि रामायण, विदुरनीति, चाणक्यनीति, नीति व वैराग्य शतक आदि।

 संस्कृत

संस्कृत भाषा सृष्टि की आदि भाषा है। वेदों के साथ प्राप्त हुई भाषा है। वेद वेदांग, उपनिषद्, दर्शनादि समस्त वैदिक वाङ्मय एवं संस्कृत साहित्य संस्कृत भाषा में ही है। संस्कृत भाषा सभी भाषाओं की जननी है। प्राचीन समय में सभी जन संस्कृत भाषा में ही व्यवहार करते थे।

संस्कृत भाषा भाषा मात्र नहीं है, ज्ञानरूपा है। आचार, विचार, व्यवहार, ज्ञान, विज्ञान आदि के सभी ज्ञान संस्कृत भाषा में ही अनुस्यूत हैं। संस्कृतज्ञ शिष्ट कहे जाते हैं। संस्कृत भाषा को प्राचीन ऋषियों ने व्याकरण में निबद्ध हयिा हे। उनमें इन्द्र, पाणिनि  आदि अग्रगण्य हैं। वेद आदि शास्त्रों के ज्ञान के लिये संस्कृताध्ययन आवश्यक है।

जयतु संस्कृतभाषा। त्रिभुवनमनोज्ञा बुधप्रिया।

 वेद
         वेद ४ हैं। वेदों का ज्ञान परमपिता परमात्मा ने सृष्टि की आदि में दिया है। वेद ईश्वरप्रदत्त हैं, इस तथ्य का प्रतिपादक मन्त्र है-

तस्माद्यज्ञात् सर्वहुतः ऋचः सामानि जज्ञिरे।
छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत।।           – यजु. ३१/७।।

मन्त्र का अर्थ है सच्चिदानन्दस्वरूप सर्वत्र पूर्ण, सर्वोपास्य परब्रह्म से, ऋचः= ऋग्वेद, सामानि= सामवेद, छन्दांसि= अथर्ववेद, यजुः= यजुर्वेद प्रकट हुये हैं।
सृष्टि की आदि में ईश्वर से सम्प्राप्त वेदों की प्राप्ति अग्नि, वायु, आदित्य, अंगिरा ४ ऋषियों के माध्यम से हुई है। वेद नित्य हैं। वेदों में सृष्टि में जितने भी ज्ञान विज्ञान हैं, उनका स्रोत है। चारों वेदों के मुख्य विषय ज्ञान, कर्म, उपासना एवं विज्ञान हैं। ऋग्वेद का मुख्य विषय ज्ञान है। यजुर्वेद का मुख्य विषय कर्मकाण्ड है। सामवेद का मुख्य विषय उपासना है। अथर्ववेद का मुख्य विषय विज्ञान है।
वेदों का ज्ञान पक्षपात रहित, सर्वकल्याणकारी, त्रैकालिक सार्वदेशिक सर्वजनीन है। सभी मनुष्यों को समानरूप से प्राप्त करने योग्य वेद का ज्ञान है।

यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः।              – यजु. २६/२।।                                 

वेद कल्याणकारी ज्ञान है, जन जन के लिये है।
वेद स्वतः प्रमाण हैं। वेद की ११२७ शाखायें हैं।

 

व्याकरण 
          पाणिनि ने व्याकरण सम्बन्धी ५ महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ बनाये  हैं। वे ग्रन्थ  हैं – अष्टाध्यायी, धातुपाठ, उणादिकोष, लिंगानुशासन, गणपाठ।

१. अष्टाध्यायी
            अष्टानाम् अध्यायानां समाहारोऽष्टाध्यायी अर्थात् आठ अध्यायों का समाहार अष्टाध्यायी कहाता है|
पाणिनीय व्याकरण आठ अध्याय में विभाजित है, अत: उसको अष्टाध्यायी कहते हैं ।प्रत्येक अध्याय के पुन: चार विभाग किये गये हैं, प्रत्येक विभाग को “पाद” कहते हैं । अर्थात् प्रत्येक अध्याय में चार पाद हैं । कुल मिलाकर अष्टाध्यायी में ३२ पाद हैं । प्रत्याहार सूत्र पाणिनि के हैं । इस प्रकार सम्पूर्ण अष्टाध्यायी में ३९७८ सूत्र  हैं।

    २. धातुपाठ:
            धातूनां पाठः धातुपाठःक्रियावाची शब्दों का निर्माण जिस प्रकृति से होता है , उसे धातु कहते हैं। जिस ग्रन्थ में उन धातुओं का पाठ है वह धातुपाठ कहा जाता है।
धातुपाठ में १० गण हैं- भ्वादि, अदादि, जुहात्यादि, दिवादि, स्वादि, तुदादि, रुधादि, तनादि, क्र्यादि, चुरादि। इसके अतिरिक्त एक कण्वादि गण भी है। सम्पूर्ण धातुयें 2014 हैं। ये धातुयें आत्मनेपद, परस्मैपद और उभयपद प्रकार वाली है। अनुदात्तेत् से आत्मनेपदी, उदात्तेत् से परस्मैपदी, उदात्तेत् और अनुदात्तेत् से उभयपदी समझी जाती हैं।

    ३. उणादिकोषरू
           उण् आदिर्येषां ते उणादयः  उणादीनां कोषः उणादिकोषःउणादिकोष अष्टाध्यायी के उणादयो बहुलम् 3/3/1 सूत्र का व्याख्यारूप पाणिनीय व्याकरण  का एक ग्रन्थ है।
इस ग्रन्थ का नाम प्रत्यय के आधार पर है। उणादिकोष का पहला प्रत्यय उण् है। उणादिकोष पंचपादी, दशपादी दो प्रकार में उपलब्ध है। पंचपादी में पांच पाद है, दशपादी में दश पाद है। पठन पाठन में पंचपादी ही प्रसिद्ध हैं, जिसमें 753 सूत्र हैं।

४. लिङ्गानुशासनम्
          लिङ्गानाम् अनुशासनं क्रियतेऽनेनेति लिङ्गानुशासनम् । लोक के अनुसार लिङ्ग (पुँल्लिंग, स्त्रीलिंग, नपुंसकलिंग) का अनुशासन करने वाला शास्त्र लिङ्गानुशासन कहाता है । पाणिनि प्रणीत इस शास्त्र में संस्कृत भाषा में व्यवहृत शब्दों के लिङ्ग का उपदेश किया गया है । यह शास्त्र भी छह अधिकारों में विभक्त है ।

५. गणपाठः
           गणानां पाठः गणपाठः, पाणिनि अष्टाध्यायी में सर्वादीनि आदि शब्द आये हैं, उनके आधार पर महर्षि पाणिनि ने गणपाठ बनाया है। यह ग्रन्थ भी नाम शब्दों की संसिद्धि में सहायक हैं। इसमें 212 गण है।

 

नामिकः
         नाम्नां व्याख्यानो ग्रन्थः नामिकः, नामिक स्वामी महर्षिदयानन्द सरस्वती द्वारा प्रणीत ग्रन्थ है। जिसमें अष्टाध्यायी के सूत्रों के अनुसार नाम शब्दों की सिद्धि की प्रक्रिया सिखाई जाती है ।

आख्यातिकः
         आख्यातानां व्याख्यानो ग्रन्थः आख्यातिकः, आख्यातिक भी स्वामी महर्षि दयानन्द सरस्वती द्वारा प्रणीत ग्रन्थ हैं। आख्यात क्रियावाची शब्दों को कहते हैं। आख्यातिक में पाणिनीय धातुपाठ निर्दिष्ट धातुओं का व्याख्यान है। आख्यातिक में भ्वादि आदि दस गणों एवं णिजन्त, सन्नन्त, यङन्त, यङ्लुगन्त आदि 12 प्रक्रियाओं का निर्देश है।

महाभाष्यम्
     महच्चादः भाष्यं च इति महाभाष्यम्महाभाष्य महर्षि पतंजलि मुनि द्वारा प्रणीत ग्रन्थ है। यह ग्रन्थ पाणिनि मुनि की अष्टाध्यायी का बृहत् व्याख्या ग्रन्थ है। महाभाष्य पढ़ने से सभी ग्रन्थों की ग्रन्थियाँ संदेह निवृत्त हो जाती हैं। पढ़ने वाला प्रखर मेधावी, शास्त्रार्थ महारथी, अद्भुत विश्लेषक बन जाता है, आचार निष्ठा सीख जाता है।

 निरुक्तम्
      निर्वचनम् = निःशेषेण शब्दार्थानां वचनं कथनं निरुक्तमुच्यते अर्थात् पूर्णरूप से शब्द के अर्थ का कथन करना निरुक्त कहाता है । यास्क प्रणीत निरुक्त शास्त्र व्याकरण का पूरक ग्रन्थ है ।

 

दर्शनग्रन्थाः
      दृष्टिः दर्शनम् । दृष्टि को दर्शन कहते है । जिस दृष्टि से इस संसार का तथा आत्मा का वास्विक स्वरूप दिखाई देता है, उस दृष्टि का नाम दर्शन है । वैदिक दर्शन छह है – १. साङ्ख्य २. योग ३. वैशेषिक ४. न्याय ५. मीमांसा ६. वेदान्त ।

वैदिक षड्दर्शन को उपांग भी कहते हैं | उप + अंग = उपांग | वेद को समझने में अत्यंत उपकारक होने से इनको उपांग कहते हैं |

 

उपनिषद:
      उप त्र समीपए नि त्र निश्चय सेए षद् त्र प्राप्त करना । उपनिषद्यते ब्रह्म यया विद्यया सा  उपनिषद् अर्थात् जिस विद्या से  उस परोक्ष परमात्मा के सामीप्य को निश्चय से प्राप्त किया जाता हैए उस विद्या को ष्उपनिषद्ष् विद्या कहते है ।प्रत्येक उपनिषद् का मुख्य प्रतिपाद्य विषय ब्रह्म है । उपनिषद् को रहस्यमयी विद्या भी कहते हैंए क्योंकि ब्रह्म.प्राप्ति की विद्या हर व्यक्ति नहीं जान पाता है । कठोपनिषद् में कहा है . ष्शृण्वन्तोऽपि बहवो यं न विसुकृष् कठो २/७  अर्थात् सुनते हुए भी बहुत लोग जिस परमात्मा को जान नहीं पाते । ऋग्वेद भी कहता है . ष्उत त्वः पश्यन्न ददर्श वाचमुत त्वः शृण्वन्न शृणोत्येनाम्ष् ऋ.१०/७१/४ अर्थात् उस विद्या को कोई तो देखता हुआ भी नहीं देख पाताए कोई सुनता हुआ भी नहीं सुन पाता । जीवन के अंतिम लक्ष्य तक पहुंचने का रास्ता यह उपनिषद् है।

आर्ष उपनिषद ११ हैं|

  • ईश
  • केन
  • कठ
  • प्रश्न
  • मुण्डक
  • माण्डूक्य
  • तैत्तिरीय
  • ऐतरेय
  • छान्दोग्य
  • बृहदारण्यक
  • श्वेताश्वतर

 

👉गुरुकुलस्य-पाठ्यक्रम: