उद्देश्य और लक्ष्य

    प्राचीन समय में हमारे देश में गुरुकुलों की समृद्ध परंपरा थी| कालान्तर में विदेशी आक्रमणों, चिरपरवशता के कारण वो मंद पड़ गयी|समय समय पर अनेक ऋषियों ने शास्त्र की शुद्ध शिक्षा प्रणाली को जीवित रखने हेतु गुरुकुल पुनर्स्थापना का आह्वान किया, वेद मार्ग को प्रशस्त किया|वेदों से उद्भूत और वैदिक ऋषि-मनीषियों द्वारा सहस्त्रों वर्षों तक पुष्पित व पल्लवित आत्मा, परमात्मा और प्रकृति को जानने की विद्या वैदिक अध्यात्म विद्या है।

||विद्ययाऽमृतमश्नुते||    -यजुर्वेद ४०/१४।।

|| सा विद्या या विमुक्तये||  -विष्णु पु. १/१९/४१।।

अर्थात् विद्या वही है जिससे व्यक्ति को मुक्ति अर्थात् अमृतत्व प्राप्त होता है|

|| विद्याधनं सर्वधनप्रधानम्||            – प्रसंगाभरणम् ८।।

अर्थात विद्या सभी प्रकार के धनों में प्रधान है|

   भारतीय वैदिक संस्कृति का सर्वश्रेष्ठ पहलु उसकी यही अध्यात्म-विद्या ही है।

   गुरुकुल के उद्देश्य मंत्र-दृष्टा ऋषि महर्षि मनु आदिसे लेकर पाणिनि, जैमिनि, पतंजलि, कणाद, महर्षि दयानंद सरस्वती के वेद भाष्यों,  वशुद्ध अध्यात्म विज्ञान विद्या पर केन्द्रित हैं जिनको निम्न प्रकार से सूचीबद्ध किया जा सकता है|

  1. ऋषियों द्वारा प्रणीत अध्यात्म विद्या को अध्यात्मिक विज्ञान के रूप में जन जन तक पहुंचाना और इसकी शुद्ध परम्परा को स्थापित करना, जिससे यह विद्या सुदीर्घ काल तक मानव समुदाय के दिव्य मोक्ष मार्ग को प्रकाशित करती रहे।
  2. अध्यात्म विद्या के मूल स्रोत ग्रन्थों वेद, वेदांगों, उपनिषद्, दर्शनादि का अध्ययन-अध्यापन करना-कराना व इसे क्रियात्मक रूप से सिखलाना भी गुरुकुल के मूल उदेश्यों में समाहित हैं|
  3. गुरु-शिष्य के मध्य पिता-पुत्री और गुरु-शिष्या के मध्य माता-पुत्री के सम्बन्धों के प्राचीन आदर्श को ब्रह्मचर्य शिक्षा के साथ पुनः स्थापित करना और उसे बालक/बालिका विद्यार्थियों के विकास का आधार बनाना।
  4. विद्यार्थियों केशारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक विकास के साथ चरित्र का विकास करना|
  5. देवभाषा संस्कृत और मातृभाषा के प्रति गर्व पैदा कर उनका व्याकरण सहित पठन पाठन उच्चकोटि के विद्वान् विदुषियों का निर्माण करना जो ऋषि महर्षियों के कृण्वन्तो विश्वमार्यम् के स्वप्न को पूर्ण करने में अथाह योगदान दें|
  6. शिक्षा के माध्यम से समाज में फैले अन्धविश्वास, कुरीरितिओं, मत-मतान्तर, सम्प्रदाय से भ्रमित मानव जाति को ईश्वरीय वाणी वेद का सत्य मार्ग दिखलाना|
  7. प्राचीन भारतीय वैदिक संस्कृति का पुनः आलौकित करना|
  8. वैदिक साहित्य तथा संस्कृत साहित्य जनजन तक पहुंचाना|
  9. ऐसी वेद विदुषियों, नारियों, माताओं का निर्माण करना जो भविष्य में सुलभा, गार्गी, मैत्रेयी, अपाला, घोषा, विश्ववारा, सूर्यासावित्री आदि एवं सीता, तारादेवी, मन्दोदरी, रूक्मिणी, लक्ष्मीबाई, जीजाबाई, पन्नाधायआदि जैसी वेद पठित, शास्त्रार्थ सक्षम, ब्रह्मवादिनी, ब्रह्मज्ञानी, तपस्विनी, योगिनी और कर्तव्यनिष्ठ महिलाएं बनकर राष्ट्र का गौरव बनें|
  10. प्रचलित दोषपूर्ण अपंग पाश्चात्य आधारित शिक्षा-पद्धति का विकल्प प्रस्तुत कर सर्वांगीण विकास करने वाली गुरुकुलीय पद्धति की जड़ों को गहरी करना| बालक के सम्पूर्ण व समष्टिगत विकास पर केंद्रित– ज्ञान, अभिव्यक्ति, शरीरिक विकास, आचरण व चरित्र निर्माण|
  11. स्त्री शिक्षा को बल देना और आधुनिक भारत के युग प्रवर्तक राजनायक श्री नरेन्द्र मोदी के “बेटी पढ़ाओ – बेटी बचाओ” कार्यक्रम को सफल बनाकर राष्ट्र निर्माण में सहयोग देना|
  12. भारतीय दर्शन, वेद-वेदांग में छिपे गहन विज्ञान को पुनः प्रकाशित करना।
  13. भारत के गौरवमयी इतिहास की पताका को फिर से लहराना|
  14. वेद पारायण यज्ञों का अनुष्ठान एवं प्रचार करना।
  15. सन्ध्या, यज्ञ, उपदेश, भजन सहित लेखन व मंगलाचरण गायन आदि का कार्य तथा वेद का प्रचार व प्रशिक्षण।
  16. आत्म तत्ववेत्ता व्यक्तित्व का सृजन करना, मानव को उर्ध्वगामी बनाना|
  17. भीतर के चैतन्य को अभिव्यक्त होने के लिए अनुकूल वातावरण देना|विद्यार्थी के अंतर में पूर्व निहित दिव्यत्व का आवाह्न कर उसे जागरुकता के एक स्तर पर लाकर, जीवन के तमाम क्षेत्र में अभिव्यक्त कराना|

भारत की प्राचीन शिक्षा प्रणाली में मुख्य तीन तत्व माने जा सकते हैं –

  1. गुरु और शिष्य का आध्यात्मिक सम्बन्ध,
  2. सत्य, तप, दम और शम आदि साधनों द्वारा दृढ़ चरित्र का निर्माण,
  3. स्वाध्याय अर्थात् परा विद्या की प्राप्ति।

यही गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली का मूल रूप है।

   वेद आर्य जाति के प्राण है। विशाल संस्कृत साहित्य का मूल स्रोत वेद ही हैं। संस्कृत का अध्ययन तब तक पूर्ण नहीं हो सकता जब तक अंगों और उपांगों के साथ वेद का अध्ययन न किया जाए। अत: ऐसे ज्ञान-केंद्र शिक्षण संस्थानों की स्थापना और सुरक्षा करना आर्यों का परम धर्म है|

तत्कर्म यन्न बन्धाय सा विद्या या विमुक्तये।
आयासायापरं कर्म विद्यान्न शिल्पनैपुणम्॥  – विष्णु पु० १/१९/४१।।

 अर्थात- कर्म वही है जो बन्धन का कारण न हो और विद्या भी वही है जो मुक्ति की साधिका हो। इसके अतिरिक्त और कर्म तो परिश्रमरुप तथा अन्य विद्याएँ कला-कौशलमात्र ही हैं॥

      आवश्यकता है, जहाँ संस्कृत साहित्य के साथ-साथ वैदिक साहित्य का भी अध्ययन हो। भारत की शिक्षा सच्चे अर्थों में राष्ट्रीय तभी हो सकती है जब यहाँ के शिक्षण संस्थानों में संस्कृत का अध्ययन हो। अत: आवश्यकता इस बात की है कि हम आर्य-जाति के लिए शिक्षा की एक ऐसी योजना तैयार करें जो सच्चे अर्थों में ‘राष्ट्रीय’ हो, जो आर्य जाति की ‘राष्ट्रीय शिक्षा’ की आवश्यकता को पूर्ण करें। अर्थात् हमें विदेशी ज्ञान-विज्ञानों को पढ़ते हुए अपनी राष्ट्रीयता की रक्षा करनी चाहिए।

   वैदिक संस्कृति जीवन को सत्य, न्याय, चरित्र, आचरण और नैतिक मूल्यों की शिक्षा देती है। बेटियों ने अपनी प्रतिभा, संघर्ष से विश्व में भारत की गरिमा बढ़ाई है। गुरुकुल का यह प्रयास समाज को नई दिशा देगा। संस्कार युक्त वातावरण, व्यवहार और शिक्षा से जीवन निखरता है। अंग्रेजी गुलामी और संस्कृत दैवीय, देव बनाने वाली भाषा है। संस्कृत सभी भाषाओं की जननी है। संस्कृत गुरुकुल से बेटियों का उद्धार होगा।

      मानयति सत्करोति उत्पादयति इति माता, मान्यते पूज्यते सत्क्रियते इति माता|  अर्थात माता वह होती है जो नाप तोलकर बच्चे को दण्ड व दुलार देती है| माता वह होती है जो बालक को जन्म देती है और बच्चे का निर्माण भी करती है, सबका सत्कार करती है| जो केवल जन्म दे परन्तु संस्कार चरित्र का निर्माण नहीं करे, वो शास्त्र के अनुसार माता कहलाने योग्य नहीं है| और वही माता पूजित होती है, और सबके द्वारा सत्कारित होती है| श्री राम , श्री कृष्ण , वीर हनुमान जैसे महापुरुष ईश्वर का अवतार नहीं थे, बल्कि विद्यावान् और संस्कारित माताओं के तपस्यापूर्ण निर्माण का परिणाम थे| इनकी माताओं ने पहले स्वयं धर्म का अनुष्ठान किया किया, राजमहलों में वैभव को तिलांजलि देकर वैराग्य भाव से जीवन जिया, पुरषार्थ, समर्पण की उपासना की| गुरुकुल ऐसी निर्मात्री विदुषियों का खान बने, ऐसा लक्ष्य लेकर चले हैं|