भोजनशाला


प्राचीन आहार शास्त्र व आरोग्य शास्त्र के अनुसार भोजन धरती पर पालथी आसन में बैठकर ब्रह्मचारिणियों द्वारा अपने अपने बर्तनों में ही किया जाता है| भोजनाशाला में मौन रहना अनिवार्य है। सभी व्यवस्थाएं भारतीयता यानि प्रकृति के कम से कम दोहन और सहस्तित्व पर आधारित रखने का प्रयास रहता है|

भोजन मंत्र

 ओ३म् अन्नपते अन्नस्य नो देह्यनमीवस्य शुष्मिणः| प्र प्र दातारं तारिष ऊर्जं नो धेहि द्विपदे चतुष्पदे ||

शब्दार्थ :- हे {अन्नपते } अन्न के पति भगवन् ! {नः} हमे {अनमीवस्य} कीट आदि रहित {शुष्मिणः} बलकारक {अन्नस्य} अन्न के भण्डार {देहि} दीजिये {प्रदातारं } अन्न का खूब दान देने वाले को {प्रतारिष } दु:खो से पार लगाईये { नः} हमारे {द्विपदे चतुष्पदे} दोपायो और चौपायो को { ऊर्जं } बल {धेहि } दीजिये |