वेदारम्भ संस्कार


वेद का अर्थ होता है सत्य-ज्ञान और वेदारम्भ संस्कार के माध्यम से बालक अब वेदज्ञान को अपने अन्दर समाविष्ट करे यही अभिप्राय है इस संस्कार का। वेद-शास्त्रों में ज्ञान से बढ़कर दूसरा कोई प्रकाश नहीं समझा गया है। यज्ञोपवीत के बाद बालकों को वेदों का अध्ययन एवं विशिष्ट ज्ञान से परिचित होने के पूर्व यह संस्कार होता है|

उपनयन संस्कार के साथ ही साथ वेदारम्भ संस्कार भी बालक को गुणवान् व विद्वान् बनाने की दिशा में बढ़ाया गया एक कदम है। इस समय बालक/बालिका  मातृ व पितृ गोदी से निकल कर गुरु की गोदी में चला जाता है ।

 इस काल में अपने निवास के क्षणों में पूर्णतया सच्चरित्र रहते हए पूर्ण तन्मयता से एकाग्रचित्त,उपदेश के अनुसार अपनी दिनचर्या रखते हुए, सभी सुखों से दूर रहते हुए, तपश्चर्या का जीवन व्यतीत करते हुए, भिक्षाटन सेभोजन लाकर सब के साथ समान रूप से उसका उपभोग कर बडे प्रेम पूर्वक मेहनत से सब प्रकार की विद्याओं को प्राप्त करता है।

सा विद्या या विमुक्तये अर्थात  जो मुक्ति दे सकें वो ही यथार्थ  विद्यायें हैं|

माता-पिता अपने बालकको ऐसी योग्य विद्या नहीं पढ़ातें या पढ़ाने का प्रयोजन नहीं करते, वे आध्यात्मिक द्रष्टि से बालक के साथ शत्रुता का व्यवहार करतें हैं इसलिये वे शत्रुतुल्य हैं| यथा

माता शत्रुः पिता वैरी येन बालो न पाठितः।

न शोभते सभामध्ये हंसमध्ये वको यथा ।।   – चाणक्य 2/11

वे माता और पिता अपने सन्तानों के पूर्ण वैरी हैं जिन्होंने उन को विद्या की प्राप्ति न कराई, वे विद्वानों की सभा में वैसे तिरस्कृत और कुशोभित होते हैं जैसे हंसों के बीच में बगुला। यही माता, पिता का कर्त्तव्य कर्म परमधर्म और कीर्ति का काम है जो अपने सन्तानों को तन, मन, धन से विद्या, धर्म, सभ्यता और उत्तम शिक्षायुक्त करना।

 वेदारम्भ से पहले आचार्य/आचार्या  अपने शिष्यों/शिष्याओं को ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने एवं संयमित जीवन जीने की प्रतिज्ञा कराते थे तथा उसकी परीक्षा लेने के बाद ही वेदाध्ययन कराते थे। असंयमित जीवन जीने वाले वेदाध्ययन के अधिकारी नहीं माने जाते थे। हमारे चारों वेद ज्ञान के अक्षुण्ण भंडार हैं। सत्यार्थ प्रकाश में स्वामी दयानंद सरस्वती लिखते हैं कि जब पांच-पांच वर्ष के लड़का लड़की हों तब देवनागरी अक्षरों का अभ्यास करावें। अन्य देशीय भाषाओं के अक्षरों का भी। और ९ वें वर्ष के आरम्भ में अपनी सन्तानों को आचार्य कुल में अर्थात् जहां पूर्ण विद्वान् और पूर्ण विदुषी स्त्री शिक्षा और विद्यादान करने वाली हों वहां लड़के और लड़कियों को विद्याभ्यास के लिये अलग अलग गुरुकुल भेज दें|

 संस्कार में यह भावना की जाती है कि यज्ञीय ऊर्जा बालक के अन्दर संस्कार रूप में वेद ज्ञान का अध्यन करने और प्राप्त करने की अभिरूचि और उत्साह को स्थिर और बलिष्ठ बना रही है। विशेष आहुति के बाद हवन के शेष कर्म पूरे करके आशीर्वचन, विसर्जन एवं जयघोष के बाद प्रसाद वितरण करके यज्ञ समापन किया जाता है|

नवीन प्रवेश होने पर इस संस्कार के पूर्व उपनयन संस्कार भी किया जाता है|ईश वेद वाणी के अनुसार स्त्री पुरुष समान रूप से उपनयन संस्कारआदि सभी सोलह संस्कारों और वैदिक अनुष्ठान कर्म आदि  के अधिकारी है|

शिक्षा में उपनयन संस्कार का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस संस्कार में ब्रह्मचारी व ब्रह्मचारिणियों को आचार्यव आचार्या के साथ उनकी चित्त की अनुकूलता का व्रत लेना अनिवार्य है।