स्नातवेदसमाप्तौ।। अष्टा॰ गण॰५/४/२९,
यह यावादिगण का सूत्र है। इस सूत्र द्वारा स्नात शब्द से कन्प्रत्ययकर के स्नातक शब्द सिद्ध होता है।
प्राचीन गुरुकुलीय व्यवस्था में स्नातक वह कहलाता था जो चारों वेदों को पढ़ लेता था। वेदों के अध्ययन के पश्चात् स्नातक / स्नातिका उपाधि दी जाती है।
नोदकक्लिन्नगात्रस्तु स्नात इत्यभिधीयते ।
स स्नातो यो दमस्नातः स बाह्याभ्यान्तरः शुचिः ।।
जल से भीगे हुए शरीर वाला “स्नात = नहाया हुआ” नहीं कहाता, अपितु “स्नात = नहाया हुआ” वह है, जो दम = मन के नियन्त्रणरूपी जल में नहाया हुआ है । वही बाहर और भीतर से शुद्ध होता है ।
गुरुकुल में प्राचार्या जी के अतिरिक्त आधुनिक विषयों के लिए बहिस्थ शिक्षा देने हेतु 5 शिक्षिकायें नियुक्त हैं एवं गुरुकुल विशिष्ट आर्ष पाठ्यक्रम पाठ्यग्रंथ के अध्यापन के लिए पूर्णकालिक 6 स्नातिका ( शास्त्रीवआचार्य) बहनें गुरुकुल में ही आवासरत और सेवारत हैं।
गुरुकुल नाम किसी भवन या स्थान का न होकर परस्पर रक्षा एवं विद्योन्नति के लिए प्रतिज्ञाबद्ध गुरु-शिष्य कुल का है ।
गर्भ में धारण करना सामीप्य-सम्बन्ध का प्रतीक है। जैसे गर्भस्थ सन्तान का माता के साथ अतिनिकट का सम्बन्ध होता है, ऐसे ही कुमार बालक या ब्रह्मचारी का आचार्य तथा गुरुजनों के साथ निकट का सम्बन्ध रहना चाहिए ताकि गुरु विद्यार्थी के गुण-दोषों को निकटता से देख सकते हैं तथा गुणों को प्रोत्साहित एवं दोषों को दूर कर सकते हैं। इससे यह अशिक्षित कुमार/कुमारी गुरु-सान्निध्य में शिक्षित होकर सत्पुरुष तथा उत्तम नागरिक बन जायेगा, संसार वा हमारे कुल में अपने शरीर और आत्मा के बल को प्राप्त होके विद्या और पुरुषार्थ युक्त मनुष्य बन जायेगा।
गुरुओं पुरुष और स्त्रियों को चाहिए कि विद्यार्थी, कुमार वा कुमारी को विद्या देने के लिए गर्भ के समान धारण करें। जैसे क्रम-क्रम से गर्भ के बीच देह बीच बढ़ता है, वैसे अध्यापक लोगों को चाहिए कि अच्छी-अच्छी शिक्षा से ब्रह्मचारी, कुमार वा कुमारी को श्रेष्ठ विद्या में वृद्धियुक्त करें तथा (उनका) पालन करें। वे विद्या के योग से धर्मात्मा और पुरुषार्थयुक्त होकर सदा सुखी हों, यह अनुष्ठान सदैव करना चाहिए। एक सच्चा पुरुष, सच्चा मनुष्य, सच्चा नागरिक बनाना भी गुरुकुल शिक्षा का उद्देय है। इस प्रकार गुरुकुल-शिक्षा एक ऐसी प्रणाली है, जिससे विद्यार्थियों के बौद्धिक स्तर के साथ-साथ उनका नैतिक स्तर भी उज्ज्वल रहता है, जिसके परिणामस्वरूप गुरुकुल के स्नातक अच्छे समाज का निर्माण करने तथा राष्ट्र निर्माण में अग्रसर रहते हैं।
अपने अपने क्षेत्र में जिन्होंने उच्च कीर्तिमान प्रस्थापित किये है ऐसे गुणवान् एवं चारित्रवान् गुरुजन यहाँ पर शिक्षा प्रदान करते हैं।
चतुर्वेदा उपाधि विषय:
चतुर: वेदान् अधीते वेद वा इति चतुर्वेद: (पुल्लिंग) , चतुर्वेदा (स्त्री.) । चारों वेदों को पढ़ने वाला, जानने वाला बालक चतुर्वेद: व बालिका चतुर्वेदा ।
चत्वारो वेदा: सन्ति यस्य यस्मिन् यस्या: यस्यां वा स: बालक: चतुर्वेदी, सा बालिका चतुर्वेदिनी। चारों वेद हैं जिसमें अथवा जिसके वह बालक चतुर्वेदी, वह बालिका चतुर्वेदिनी।
स्त्रीलिंग में चतुर्वेदी कभी नहीं बनता । स्त्रीलिंग में जो चतुर्वेदी प्रयोग होता है वह गलत है। चतुर्वेद: व चतुर्वेदी (पु.) चतुर्वेदा व चतुर्वेदिनी (स्त्री.) में भिन्न-भिन्न प्रत्ययों से बने हैं।
याज्ञिकी उपाधि विषय:
यज्ञ कर्म करने में निपुण होने पर वेद विदुषी को याज्ञिकी की उपाधि से सुशोभित किया जाता है|